देहबुद्ध्या तु  दासोsहं

दासोऽस्मि ते राघव देहदृष्ट्या।
अंशोऽस्मि ते ईश्वर जीवदृष्ट्या।
अहं त्वमेवेति च वस्तुतस्तु।
सुनिश्चिता से मतिरित्थमस्ति॥
(हनुमच्चरित्रवाटिका)

हनुमान जी बोले- ‘हे प्रभो! मैं देह दृष्टि से आपका दास हूँ। हे ईश्वर! जीव दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ। और वस्तुतः ‘मैं और आप एक ही हैं’ ऐसी ही मेरी निश्चित मति है॥

देहबुद्ध्या तु दासोऽहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः॥

अहं देहबुद्ध्या तवैवास्मि दासो ह्यहं
जीवबुद्ध्याऽस्मि तेंशैकदेशः।
त्वमेवास्म्यहं त्वात्मबुद्ध्या तथापि
प्रसीदान्वहं देहबुद्ध्या नमस्ते॥
(श्रीगुरुभुजङ्गस्तोत्रे)
देहबुद्धि अर्थात देह के साथ से तादात्म्यापन्नता होने पर मैं आपका दास हूँ; जीवबुद्धि से मैं आपका एक अंश हूँ; आत्मा के दृष्टिकोण से मैं आपसे किञ्चित् भी भिन्न नहीं हूँ, अर्थात सच्चिदानन्दस्वरूप ही हूँ। फिर भी, देहबुद्धि से मैं, सच्चिदानन्दस्वरूप आपको नमस्कार करता हूँ।

दासस्तेऽहं देहदृष्ट्याऽस्मि शंभो
जातस्तेंऽशो जीवदृष्ट्या त्रिदृष्टे।
सर्वस्याऽऽत्मन्नात्मदृष्ट्या त्वमेवेत्येवं
मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रैः॥
(श्रीशङ्कराचार्यकृत, मनीषापञ्चकम्)
हे शम्भो! देहदृष्टि (देह के विचार) से मैं आपका दास हूँ और हे त्रिलोचन! जीव-दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ। शुद्ध आत्म-दृष्टि से विचार करने पर तो सबकी आत्मा आप ही हैं। उस अवस्था में मैं आपसे किसी प्रकार भिन्न नहीं हूँ। सब शास्त्रों के द्वारा निश्चित किया गया यही मेरा ज्ञान है॥

देहबुद्ध्या भवेद्भाता पिता माता सुहृत्प्रियः॥
विलक्षणं यदा देहाज्जानात्यात्मानमात्मना।
तदा कः कस्य वा बन्धुर्धाता माता पिता सुहृत्॥
(आध्यात्मरामायणे युद्धकाण्डे १२।२३)
माता, पिता, भ्राता, सुहृद् और स्नेहीजन तो देह-बुद्धिसे ही होते हैं। जिस समय अपने विशुद्ध अन्तःकरणद्वारा मनुष्य आत्माको देहसे पृथक् जान लेता है उस समय कौन किसका माता, पिता, भाई, बन्धु अथवा सुहृद् है?

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